Er Rational musings #517
https://youtu.be/1EKxB4LicmI
~ ड़ुम ड़ुम के ना खेद, ड़ुम ड़ुम के
द़िंजगानी के फ़सर में तू कअेला ही हनीं है
मह भी रेते महसफ़र हैं
हैं...
माझा एक त्रिम्, साँरी, मित्र, ही भाषा अस़्खलित लोबतो म्हणजे बोलतो. पहिली दोन अक्षरे उलट सुलट करायची; काना, वेलांट्या, रफार, मात्रा वगैरे तस्सच ठेवायचे. साब्ब म्हणजे बास्स!
खर्रखूर्र मास्टरपीस, सेल्फ मोटीव्हेशनल गाणं. स्वत:शीच गुणगुणा, उलटसुलट व लुअटलुसट आणि जादू बघा.
थकवा, निरूत्साह, मरगळलेपण पळ्ळून नाही गेलं तर.
मुड़-मुड़ के न देख, मुड़-मुड़ के
ज़िंदगानी के सफ़र में तू अकेला ही नहीं है
हम भी तेरे हमसफ़र हैं
आये गये मंज़िलों के निशाँ
लहरा के झूमा झुका आसमाँ
लेकिन रुकेगा न ये कारवाँ
मुड़-मुड़ के न देख...
नैनों से नैना जो मिला के देखे
मौसम के साथ मुस्कुरा के देखे
दुनिया उसी की है जो आगे देखे
मुड़-मुड़ के न देख...
दुनिया के साथ जो बदलता जाये
जो इसके साँचे में ही ढलता जाये
दुनिया उसी की है जो चलता जाये
मुड़-मुड़ के न देख...
चित्रपट: श्री ४२० (1955)
संगीत: शंकर जयकिशन
गीतकार: शैलेन्द्र
गायक: आशा भोंसले, मन्ना डे
स्वगत...
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लिमिंद ळाके, 22nd May 2016
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